नई दुनिया (१६ जनवरी) से साभार
लेखक- डॉ जयकुमार जलज
------------------------------------
राजभाषा का पदनाम तो जरूर वर्ष 1950 से हिंदी को दिया गया, किंतु पद के अधिकारों से उसे वंचित रखा गया। जमीन हिंदी के नाम दर्ज हुई, कब्जा अंग्रेजी को मिला। कब्जे को खाली कराना आसान नहीं होता। फिर जब सरकार ही कब्जा करने वाले के पक्ष में हो तो यह काम और भी कठिन हो जाता है। अंग्रेजी को 1965 तक के लिए सिंहासन दिया गया था। 1967 में उसे अनिश्चितकाल के लिए उस पर बैठे रहने की संवैधानिक छूट दे दी गई।
अंग्रेजी के खिदमतगारों ने संसद के बाद अब सड़क पर भी मोर्चाबंदी कर ली है। विज्ञापन, कोचिंग, प्रसार माध्यम, उच्च वर्ग आदि भ्रम पैदा कर रहे हैं कि रोजगार चाहिए तो अंग्रेजी माध्यम से पढिए। विदेश जाना है तो अंग्रेजी माध्यम अपनाइए। ये कोई नहीं देखता कि शहर कस्बे में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की जितनी संख्या है, क्या उन शहरों/कस्बों में उतनी संख्या अंग्रेजी बोलने वालों की है या नहीं?
अस्सी प्रतिशत जनता शायद ही कभी विदेश जाए। और विदेश का अर्थ सिर्फ अमेरिका, ब्रिटेन या ऑस्ट्रेलिया ही नहीं होता। 90 प्रतिशत रोजगारों में लोग बिना अंग्रेजी के सफल हो रहे हैं। क्रिकेट जैसा अंग्रेजी खेल भी बिना अंग्रेजी जाने खेला जा रहा है। निर्माण कार्य, खेती, दुकानदारी, व्यापार, व्यवसाय, वाहन चालन, मजदूरी, कारखाने, लघु उद्योग, गृहकार्य आदि बिना अंग्रेजी के चल ही रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व कुछ हिंदी अखबारों को अचानक यह इलहाम हुआ था कि हिंदी में समुचित, सटीक शब्दावली और चुस्त-दुरुस्त वाक्य संरचना नहीं है। उन्हें चंद्र, चंद्रमा, चांद, चंदा, इंदु, निशाकर, निशिकर, रजनीश, मृगांक, राकेश, सुधांशु, रजनीकर, विधु, शशि, शशधर, शशांक, सुधाकर, हिमकर, हिमांशु, ताराधिप, निशानाथ, रजनीचरजैसे तमाम शब्द अंग्रेजी के 'मून'शब्द के सामने बौने लगे। उन्होंने चंद्र अभियान को ‘मून मिशन'और अभियान असफल हुआ तो 'मून मिशन मौन'लिखना पसंद किया था। इससे वे पाठकों तक शायद यह संदेश पहुंचाना चाहते थे कि क्या करें हिंदी में मून के लिए कोई शब्द ही नहीं है!
हिंदी अपभ्रंश की बेटी, प्राकृत की पोती व संस्कृत की पड़पोती है। उर्दू व उसका एक ही डीएनए है। उसकी अनेक बोलियां उसे समृद्ध करती हैं। सभी भारतीय भाषाओं से उसका कोई न कोई घनिष्ठ रिश्ता है। उसके शब्दों के सूक्ष्म अंतरों पर नजर तो डालिए- बढ़ा तो कदम, छू लो तो चरण, मार दो तो टंगड़ी, अड़ा दो तो टांग, घुघरू बांधो तो पग, चिह्न छोड़ो तो पद, प्रभु के हों तो पाद, फूले तो पांव, कुल्हाड़ी मारो तो पैर और सिर पर पड़े तो लात।
जिन्हें अंग्रेजी की जरूरत कभी नहीं पड़नी है, उन्हें भी अनिवार्यतः अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा में झोंका जा रहा है। यानी आपको भले ही इंदौर से रतलाम या कराची जाना हो, जाना लंदन होकर ही पड़ेगा। पूरे देश को एक ऐसी भाषा के पीछे दौड़ाया जा रहा है, जिसकी जड़ें देश में हैं ही नहीं। हम एलकेजी से ही बच्चों के गले में अंग्रेजी बांध देते हैं। हमें बच्चों को दोयम दर्जे की प्रतिभा बनाना मंजूर है, अंग्रेजी छोड़ना मंजूर नहीं है।
अंग्रेजी पढ़ाना गलत नहीं, अंग्रेजी माध्यम से सभी विषय पढ़ाना गलत है। बच्चों की अवधारणाओं और अंग्रेजी शब्दों के बीच संगति ही नहीं बैठ पाती है। हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने कहा था, 'हिंदुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग हैं। राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं, बल्कि हम पर पड़ेगी।'
लेखक- डॉ जयकुमार जलज
------------------------------------
राजभाषा का पदनाम तो जरूर वर्ष 1950 से हिंदी को दिया गया, किंतु पद के अधिकारों से उसे वंचित रखा गया। जमीन हिंदी के नाम दर्ज हुई, कब्जा अंग्रेजी को मिला। कब्जे को खाली कराना आसान नहीं होता। फिर जब सरकार ही कब्जा करने वाले के पक्ष में हो तो यह काम और भी कठिन हो जाता है। अंग्रेजी को 1965 तक के लिए सिंहासन दिया गया था। 1967 में उसे अनिश्चितकाल के लिए उस पर बैठे रहने की संवैधानिक छूट दे दी गई।
अंग्रेजी के खिदमतगारों ने संसद के बाद अब सड़क पर भी मोर्चाबंदी कर ली है। विज्ञापन, कोचिंग, प्रसार माध्यम, उच्च वर्ग आदि भ्रम पैदा कर रहे हैं कि रोजगार चाहिए तो अंग्रेजी माध्यम से पढिए। विदेश जाना है तो अंग्रेजी माध्यम अपनाइए। ये कोई नहीं देखता कि शहर कस्बे में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की जितनी संख्या है, क्या उन शहरों/कस्बों में उतनी संख्या अंग्रेजी बोलने वालों की है या नहीं?
अस्सी प्रतिशत जनता शायद ही कभी विदेश जाए। और विदेश का अर्थ सिर्फ अमेरिका, ब्रिटेन या ऑस्ट्रेलिया ही नहीं होता। 90 प्रतिशत रोजगारों में लोग बिना अंग्रेजी के सफल हो रहे हैं। क्रिकेट जैसा अंग्रेजी खेल भी बिना अंग्रेजी जाने खेला जा रहा है। निर्माण कार्य, खेती, दुकानदारी, व्यापार, व्यवसाय, वाहन चालन, मजदूरी, कारखाने, लघु उद्योग, गृहकार्य आदि बिना अंग्रेजी के चल ही रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व कुछ हिंदी अखबारों को अचानक यह इलहाम हुआ था कि हिंदी में समुचित, सटीक शब्दावली और चुस्त-दुरुस्त वाक्य संरचना नहीं है। उन्हें चंद्र, चंद्रमा, चांद, चंदा, इंदु, निशाकर, निशिकर, रजनीश, मृगांक, राकेश, सुधांशु, रजनीकर, विधु, शशि, शशधर, शशांक, सुधाकर, हिमकर, हिमांशु, ताराधिप, निशानाथ, रजनीचरजैसे तमाम शब्द अंग्रेजी के 'मून'शब्द के सामने बौने लगे। उन्होंने चंद्र अभियान को ‘मून मिशन'और अभियान असफल हुआ तो 'मून मिशन मौन'लिखना पसंद किया था। इससे वे पाठकों तक शायद यह संदेश पहुंचाना चाहते थे कि क्या करें हिंदी में मून के लिए कोई शब्द ही नहीं है!
हिंदी अपभ्रंश की बेटी, प्राकृत की पोती व संस्कृत की पड़पोती है। उर्दू व उसका एक ही डीएनए है। उसकी अनेक बोलियां उसे समृद्ध करती हैं। सभी भारतीय भाषाओं से उसका कोई न कोई घनिष्ठ रिश्ता है। उसके शब्दों के सूक्ष्म अंतरों पर नजर तो डालिए- बढ़ा तो कदम, छू लो तो चरण, मार दो तो टंगड़ी, अड़ा दो तो टांग, घुघरू बांधो तो पग, चिह्न छोड़ो तो पद, प्रभु के हों तो पाद, फूले तो पांव, कुल्हाड़ी मारो तो पैर और सिर पर पड़े तो लात।
जिन्हें अंग्रेजी की जरूरत कभी नहीं पड़नी है, उन्हें भी अनिवार्यतः अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा में झोंका जा रहा है। यानी आपको भले ही इंदौर से रतलाम या कराची जाना हो, जाना लंदन होकर ही पड़ेगा। पूरे देश को एक ऐसी भाषा के पीछे दौड़ाया जा रहा है, जिसकी जड़ें देश में हैं ही नहीं। हम एलकेजी से ही बच्चों के गले में अंग्रेजी बांध देते हैं। हमें बच्चों को दोयम दर्जे की प्रतिभा बनाना मंजूर है, अंग्रेजी छोड़ना मंजूर नहीं है।
अंग्रेजी पढ़ाना गलत नहीं, अंग्रेजी माध्यम से सभी विषय पढ़ाना गलत है। बच्चों की अवधारणाओं और अंग्रेजी शब्दों के बीच संगति ही नहीं बैठ पाती है। हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने कहा था, 'हिंदुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग हैं। राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं, बल्कि हम पर पड़ेगी।'