स्वभाषाका विशेष महत्व है। राष्ट्रभाषा को महत्व दिए बिना समग्र विकास संभव नहीं होता। ऐसे देश कभी विकसित देशों की श्रेणी में शामिल नहीं हो सकते।
भाषाई आधार पर विश्व को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक वह जो अपनी भाषा को ही महत्व देते हैं। उनका निशाना अपनी भाषा में होता है। ऐसे देश विकसित देशों में शामिल हो चुके हैं। दूसरे वह देश है, जिन्होंने अपनी भाषा को उचित महत्व नहीं दिया। उन्होंने विदेशी भाषा को ऊंचा स्थान दिया। ऐसे देश विकासशील या अविकसित रह गए। ब्रिटेन के उपनिवेश रहे देशों ने अंग्रेजी को वरीयता दी। यहां अंग्रेजी को श्रेष्ठता का प्रतीक मान लिया गया।
प्राचीन अद्भुत वैदिक साहित्य संस्कृत में है, विश्व के प्राचीनतम दर्शन, कला, साहित्य, विज्ञान, गणित, प्रौद्योगिकी आदि सभी के मूलग्रंथ संस्कृत में है। लेकिन हम संस्कृत और उससे उत्पन्न हुई भारतीय भाषाओं को महत्व नहीं दे सके जब तक हमने अपनी राष्ट्र भाषा को शीर्ष पर रखा भारत विश्व गुरु था। आज अंग्रेजी उच्च पदों पर पहुंचने के लिये अनिवार्य हो गयी। इस स्थिति को बदलना होगा, तभी देश स्वाभिमान होगा तथा उसे विकसित देशों की सूची में स्थान दिखाना संभव होगा। अंग्रेजी सीखने में विद्यार्थी की चालीस प्रतिशत क्षमता व्यर्थ हो जाती है।इसे रोकना होगा।
विकसित देशों में चीन, जर्मनी, फ्रांस, जापान, रूस के उदाहरण सामने हैं। ये देश अपनी मातृभाषा के बल पर विकसित हुए हैं। वहीं ब्रिटेन और अमेरिका अंग्रेजी मातृभाषा के बल पर विकसित बने हैं। चीन में सत्तर भषाएं हैं। भाषाई विविधता भारत से अधिक है लेकिन चीन ने गोन्ताऊ को मानक लिपि बना दी। बिना कठिनाई के लोग इसे सीख सकते थे। इसी को अनिवार्य बना दिया गया। अपनी भाषा सीखने में वहां के बच्चों को कठिनाई नहीं होती और पूरी क्षमता देश के विकास में लगती है।दूसरी तरफ भारत में अंग्रेजी सीखने में भारत के विद्यार्थी को चालीस प्रतिशत क्षमता खपा देनी होती है।
कोई शब्द कठिन या सरल नहीं होता। जिन शब्दों से परिचय की प्रगाढ़ता होती है, वह सरल हो जाता है। राष्ट्रभाषा, मातृभाषा से जन्मजात प्रगाढ़ता होती है। संविधान के अनुच्छेद तीन सौ इक्यावन में राजभाषा के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी सरकार को सौंपी गयी। यह संवैधानिक कर्तव्य है लेकिन इसके उल्लंघन पर कोई सजा नहीं होती। धड़ल्ले से राजभाषा को महत्वहीन बना दिया गया। कार्य अंग्रेजी में होता है।